Vapasi (वापसी) - Story by Shivanand Mishra

वापसी

हैलोजन लाइट की पीली रौशनी के इर्द-गिर्द मंडराते हुए पतंगे, मरे-अधमरे अब प्लेट्फॉर्म के फर्श पर बिछे पड़े थे. कुछ अभी भी लैम्प के कांच से टकराते हुए चक्कर काट रहे थे. चाय समोसे की दुकान वाला अब अपनी दुकान को ताला लगा कर जा चुका था. यात्री अपने सामानों पर सर रख कर ऊँघ रहे थे. अभी कुछ देर पहले तक वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी चिंता बड़ी ही विचारोत्तेजक बहस के माध्यम से जाहिर कर रहे थे. अब रह-रह कर उनकी खीझ और झल्लाहट प्लेट्फॉर्म के मच्छरों और रेलवे विभाग पर स्थानांतरित हो गई थी, कि तभी उद्घोषणा हुई, “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, हाबड़ा से चल कर श्री गंगानगर को जाने वाली ३००७ उप उद्यान आभा तूभान एक्सप्रेस प्लेट्फॉर्म नं. २ पर आ रही है.” जहाँ-तहाँ ऊँघते यात्रियों के मुँह पर जैसे पानी का छींटा पड़ा हो. बक्सर स्टेशन का प्लेट्फॉर्म नं. २ अब चैतन्य हो चुका था. यत्रियों ने अपना-अपना सामान समेटना शुरू कर दिया. “महेश! उठ बेटा. ट्रेन आ गईल.” रघुनाथ ने अपने सात साल के बेटे को जगाते हुए कहा. रघुनाथ ने कंधे पर पड़े गमछे को फटकारते हुए अपना कुर्ता ‌पाजामा साफ किया. अचकचाई आँखों और भारी पलकों के साथ झूमते बच्चे का मुँह पास के नल पर धुलाते हुए रघुनाथ बोला, “संग मत छोड़िह बेटा. हाथ धइले रहिह भीड़ में.” बच्चे ने स्वीकृति में सर हिलाया. अब रघुनाथ एक हाथ में बैग और दूसरे हाथ में बेटे का हाथ थामे प्लेट्फॉर्म पर आगे की ओर बढ़ चला. “ई साला लगन के दिन आ ऊपर से जनरल के धक्का.”, बुद्बुदाते हुए रघुनाथ ने चिंता से अपने बेटे की ओर देखा. जहाँ-तहाँ दुबके लोग अब प्लेट्फॉर्म पर नमूदार थे, जैसे किसी ने बिल में पानी डाल दिया हो और सारे चींटे यक--यक भरभरा कर बाहर निकल आये हों. रघुनाथ भीड़ की तरफ देखता और उसके हाथ का कसाव बेटे के हाथ पर बढ़ जाता.
    कुछ ही देर बाद रघुनाथ के दिल की धड़कनें ट्रेन के इंजन की धड़धड़ाहट के साथ एकाकार हो रही थीं. ट्रेन के रुकते ही अफरातफरी सी मच गई, “एक मिनट! पहिले उतर लेने दीजिए, फिर चढ़िएगा!” उतरने वालों में से कोई चिल्लाया. तभी चढ़ने वालों में से किसी ने सर झुका कर किनारे से घुसने की कोशिश की. “बहुत काबिल बनते हैं! मारेंगे दू पड़ाका दिमाग होश में आ जाएगा.”, उतरनेवालों में से किसी ने डपट कर घुसने वाले को धकिया कर नीचे उतार दिया. कुछ ही देर में जिनको उतरना था वो उतर गये और चढ़्ने वाले भी जैसे-तैसे कर चढ़ ही गये. ये बात और थी कि उनमें से अभी भी कुछ बाहर गेट पर लटक रहे थे. गनीमत थी, रघुनाथ गिरते-पड़ते, लोगों को धकियाते-गरियाते बेटा समेत ट्रेन के अंदर था. “ऊँ हूँ! का कर रहे हैं? देख कर नहीं चल सकते का?”, किसी ने रघुनाथ का पैर पकड़ कर एक तरफ झटका. “हद कर रहे हैं महाराज आप भी. एक तो बिच्चे रस्ता बइठे हैं अउर रौब ऐसे झाड़ रहे हैं जैसे कबाला लिखा कर आये हों पूरी ट्रेन का. हटिए जाने दीजिए अंदर. रास्ता छेंक कर बैठे हैं फालतू में.”, रघुनाथ के बोलते ही फर्श पर बैठी मुंडियाँ इधर-उधर हुईं, हाथ-पैर सिकुड़े और आगे जाने लायक एक अस्थाई रास्ता जैसा बन गया. रघुनाथ, उस का बेटा और एक-दो अन्य लोग अंदर की ओर आगे बढ़े. ट्रेन अब प्लेट्फॉर्म पर बढ़ चली थी. ट्रेन के चलने के साथ शोर कुछ बढ़ा जो अब धीरे-धीरे मक्खियों की भनभनाहट सा होता हुआ इक्का-दुक्का आवाजों तक सिमट गया था. आगे बढ़ते हुए रघुनाथ का सर किसी गद्देदार चीज से टकराया. जब उसने सर उठा कर देखा तो उसे बेसाख्ता हंसी आई. हंसते हुए उसने कहा, “वाह गुरू! खूब जुगाड़ लगाये हो.” दरसल रघुनाथ का सर जिस चीज से टकराया था वह एक शॉल से बना हुआ अस्थाई झूला था जो सामान रखने वाली रैकों से ऊपर-ऊपर बाँधकर बनाया गया था और उसका सृजनकर्ता अब उस नायाब युक्ति का आनांद ले रहा था. उसने लजाती हुई हंसी के साथ रघुनाथ की तरफ देखा. इस वाकये ने माहौल को हल्का बनाने में मदद की. आस-पास के लोग भी रघुनाथ के साथ इस हंसी में सरीक हुए. अब रघुनाथ के बेटे के लिए जगह बना ली गई थी. ऊपर की सीट पर बैठा एक सख्स बड़े गौर से रघुनाथ को देखे जा रहा था. “रघुनाथ भाई?”, उसने आवाज दी. रघुनाथ चौंका. उसने आवाज देने वाले को देखा, “मोहनजी, आप? बाप रे, कतना दिन बाद भेंट हो रहा है! सब मजे में ना?” “हाँ-हाँ! सब मजे में! आइए ऊपर बैठिए.”, मोहन जी हँसे, “चलो जी, थोड़ा उधर सरको, बैठने दो इनको भी.” मोहन जी ने अपने बगल वाले को धकियाते हुए जगह बनाई. अब रघुनाथ ऊपर वाली सीट पर मोहन जी के साथ बैठे थे. जब रघुनाथ बैठ लिए तो मोहन जी ने पूछा, “और कहाँ जा रहे हैं?” “बस कानपुर तक. श्रीमती जी की छोटी बहन की शादी है. बेटे का स्कूल चल रहा था और हमें भी खटाल के काम से फुर्सत नहीं थी सो श्रीमती जी को उनके भाई के साथ कुछ पहले ही भेंज दिया था. अब बेटा और हम जा रहे हैं. और बताइए आप कहाँ जा रहे हैं? का हो रहा है आज कल?” रघुनाथ ने मोहनजी से पूछा. मोहन जी मुस्कुराए, “इलाहाबाद!” फिर कुछ देर तक अपनी बाईं हथेली को दायें हाथ के अंगूठे से सहलाते हुए देखते रहे और बोले, “कुछ्छो नहीं हो रहा है रघुनाथ भाई! बस कोशिश जारी है.” एक लम्बी साँस लेकर छोड़ते हुए मोहन जी फिर बोले, “अब लास्ट चान्स चल रहा है. देखिए का होता है.” अचानक जैसे कुछ याद आया हो, मोहनजी बोले, “अरे हाँ! सेवा संघ से निकलने के बाद हम पहली बार मिल रहे हैं न? शायद! इंटरमीडिएट के बाद तो संग साथ छूटिए गया था हमलोग का. अउर आज मुलाकत भी हुआ तो इस भीड़-भड़क्का में.” रघुनाथ ने थाड़ा संजीदा होते हुए पूछा, “ई कवन लास्ट चांस की बात कह रहे थे आप अभी, मोहन जी?” मोहन जी ठहाका मार कर हंसे. इतनी जोर से कि संयत होते-होते उन्हे अपनी आँखें पोंछनी पड़ीं. “बताते हैं! बताते हैं!” मोहन जी अपनी सांसों को नियंत्रित करते हुए बोले, “इंटर के बाद हम और नितिन इलाहाबाद चले आये. साथ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.. किया, एम.. किया और सिविल सर्विसेज की तैयारी करने लगे. नितिन का सलेक्सन अभी दो साल हुए यू.पी. पी.सी.एस. में हो गया. रह गया मैं, (हंसते हुए) अब लास्ट चान्स चल रहा है, यू.पी. पी.सी.एस. का. आई..एस. के सारे चान्स खतम हो गये. हालांकि दो बार मेन्स दिया और एक बार इंटर्व्यू तक पहुंचा. खैर, अपनी सुनाइए महाराज! का चल रहा है?” रघुनाथ, मोहन जी की तरफ देखता रहा, जैसे, जो कुछ भी उसने अभी-अभी सुना हो वह अधा-अधूरा सा है. वह इन सब बातों को सेवा संघ ईंटर कॉलेज के दिनों से जोड़्कर देखना चाह रहा हो. इसमें अपने आप को जोड़ कर देखना चाह रहा हो. जाने कितनी बातें आईं और चली गईं .....बेनतीजा. मोहनजी ने रघुनाथ से इसारे से पूछा, क्या हुआ? जवाब में रघुनाथ मुस्कुराया और ना में सर हिलाया जैसे कह रहा हो कुछ नहीं फिर चुप हो कुछ देर तक नीचे देखता रहा.
    “रघुनाथ भाई तुम तो क्लास में सबसे तेज थे. अचानक से तुम भी गायब हुए तो पते नहीं चला तुम्हारा. कहाँ गये, क्या कर रहे हो?” हँसते हुए मोहन जी ने पूछा. गाड़ी ने रफ्तार पकड़ लिया था. उस रफ्तार के शोर में सांय-सांय करता सन्नाटा था और उसी की लय में यात्रियों के झूमते हुए सर. मोहन जी उत्सुकता से रघुनाथ की तरफ देख रहे थे और रघुनाथ नीचे. कुछ देर बाद रघुनाथ ने पूछा, “शुरू से बताएँ?” मोहन जी बोले, “हाँ-हाँ शुरू से बताइए.” रघुनाथ ने कहना शुरू किया, “मोहन जी, हम जिस परिवार से आते हैं न, वहाँ इंटर तक भी पढ़ ले जाना बड़ी बात है. बस इतना जान लीजिए कि बचपन से ही कुछ ऐसा हुआ कि बिल्ली के भाग से छींका टूटा, वाली कहावत हम पर फिट बैठती चली गई. नहीं तो कहाँ होता ई सब पढ़ाई-लिखाई आ कहाँ भेंट होता आप सब से. खैर, छोड़िए ई सब. हम बताते हैं आप को कि हम कइसे शुरू किये आ कइसे पहुंचे इहाँ तक.” एक लम्बी साँस ले कर रघुनाथ ने कहना शुरू किया. “हम जब भी अपना बचपन का दिन याद करते हैं न, तो सबसे पहिले यही याद आता है कि चूल्हा सुलगा है और पूरे घर में धुँआ-धुँआ सा भरा है. आँख-नाक धुँआ से परपरा रहा है और हम दूनो हाँथ से आँख-नाक पोंछते मुखिया जी के दुआर की ओर भागे जा रहे हैं. मुखिया जी के दुआर पर मधो जी माट्साब इनार (कुंआ) के जगत पर नंग-धडंग लंगोटा बांधे नहाने जा रहे हैं. हाँथ में पानी से भरा हुआ पीतल का गगरा है कि तभी हम लार-पोंटा पोंछते वहाँ पहुँचते हैं. ऊ हमको देख कर ठिठकते हैं और हमारी ओर देख कर हंसते हैं. उनको हंसता देख कर हम लजा जाते हैं. हम ओसारी (बरामदा) का खम्भा, हाथ पीछे कर पकड़ लेते हैं और उनको टुकुर-टुकुर ताकते हैं. माधो जी माट्साब पूछते हैं, “किसका लड़्का है मुखिया जी?” मुखिया हंसते हुए कहते हैं, “सुरुजनाथ अहिर का लड़्का है माट्साब.” “अछा-अछा, का नाम है जी तुम्हारा?” मैं चुपचाप उन्हें देखे जा रहा हूँ. “आओ पीठ मलो हमारी.” गगरा का पानी सर पर भभकाते हुए माधो माट्साब बोले. गगरे का पानी भक-भक की आवाज के साथ माधो माट्साब के सर पर गिर रहा था और सर से पैर तक पानी की एक झीनी सी चादर माट्साब की देह पर दिख रही थी. मैं मंत्रमुग्द्ध सा देखे जा रहा था. “अरे रघुनथवा! जो मल दे पीठ माट्साब के.” मुखिया जी बोले. मैं भागा-भागा गया और माट्साब की पीठ मलने लगा. इस तरह कब मैं माट्साब की सेवा में लग गया मुझे पता ही नहीं चला. बाबू जी मुखिया जी की चरवाही करते थे और हम भाई-बहन मुखिया जी के घर का बाहर-भीतर का छोटा-मोटा काम कर दिया करते थे. मुखिया जी ने अपने बगइचा में कक्षा पाँच तक का स्कूल खुलवा दिया था. माधो माट्साब उसी स्कूल में पढ़ाते थे. चूँकि उनका गाँव हमारे गाँव से दूर पड़ता था और रोज आना-जाना संभव नहीं था, सो माट्साब मुखिया जी के दुआर पर ही रहते थे और हफ्ता-दस दिन पर अपने गाँव हो आते थे. माट्साब रोज शाम को जब दिन ढल जाता तो मुखिया जी के दोनो बच्चों सुजीत और लाली को पढ़ाते थे. मेरा काम लालटेन का सीसा साफ करना, मिट्टी तेल डाल कर दिया-बत्ती करना था. फिर दुआर पर बाहर या ओसारी में चौकी पर हमारी क्लास लगती. जब कुछ बड़े हुए तो दिनचर्या में एक काम और जुड़ गया सुबह-सबेरे माट्साब के लिए इनार पर तेल साबुन रखना और नहाने के लिए इनार से पानी निकालना. तो इस तरह से सेवा भाव में माट्साब के साथ लगे-लगे हम भी विद्या अध्ययन करने लगे. साधन तो मुखिया जी के यहाँ था ही.
    जितना अनुकूल वातावरण मेरे लिए घर से बाहर था, उतना घर में नहीं था. मेरे पिता जी तीन भाई थे और भाइयों में सबसे बड़े थे. मैं दो भाई था. एक छोटी बहन थी. बड़े चाचा-चाची और उनके दो लड़्के. छोटे चाचा की तब शादी नहीं हुई थी. एक बूढ़ी दादी थीं. घर में कहने को सब थे लेकिन बाबू जी को ही सब देखना पड़ता था. खेती-ग़ृहस्थी, माल-मवेशी सबकी जिम्मेदारी उन्हीं पर थी. साथ ही मुखिया जी के माल-मवेशी और बाहर-भीतर का बेगार भी उन्हीं को देखना था. बड़े चाचा कलकत्ता किसी जूट मिल में मजूरी करते थे और जब भी घर आते तो बाहर ही बाहर पहले अपने ससुराल जाते क्योंकि चाची अक्सर अपने मायके ही रहतीं. कभी-कभार आतीं भी तो दो-चार दिन में ही दादी से लड़-झग़ड़ कर वापस मायके चली जाती थीं. खैर, बचे छोटे चाचा जो रहते तो गाँव पर ही थे लेकिन दिन भर मटरगस्ती करते रहते. मेरे पिताजी जरूरत से जादे सीधे थे जिसका नाजायज फायदा मेरे दोनो चाचा अंत तक उठाते रहे. बाबू जी सबकुछ जानते हुए भी नजरअंदाज कर जाते. चुपचाप खेती-बाड़ी और मुखियाजी की चरवाही करते और जो भी कमाई होती सब दादी के हाथ में रख देते. अपने पास कुछ भी नहीं रखते. जरूरत पड़ने पर ही दादी से माँगते. मैंने बाबू जी को कभी हंसी ठ्ट्ठा करते या बिना काम के बैठे नहीं देखा. हर समय कुछ ना कुछ करते रहते.
    दादी को गाँव की औरतों से ही फुरसत नहीं मिलती. दिन भर कभी न खत्म होने वाली बातें होती रहतीं. कभी किसी के ओसारे तो कभी किसी के दालान. इन सब से फुर्सत मिलती तो माँ पर हुकुम चलातीं. उसके हर काम में कुछ ना कुछ नुख्स जरूर निकालतीं, ताने मारतीं. माँ सब कुछ चुपचाप सहती. अगर भूल से भी मुँह से कुछ निकल जाता तो फिर सामत ही आ जाती. लात-जूते, थप्पड़-घूसे दनादान चलते. आस-पास पड़ी हर चीज़ दादी का अस्त्र-शस्त्र होती. चाहे वह बेलन, कलछुल चिमटा या फिर जलती हुई लुआठ ही क्यों ना हो.
    रघुनाथ कहते-कहते कुछ देर के लिए रुके. गर्दन की नसें कुछ उभर आई थीं. चेहरा लाल था. पलकों के किनारे पोंछते  हुए बोले, “बहुत सहा मेरी माँ ने, मोहन जी. कभी किसी से शिकायत नहीं की. और करती भी तो किससे? बाबू जी खुद अपनी माँ के सामने कुछ नहीं बोल पाते थे. खैर, माँ थोड़ी देर रोती-सिसकती, फिर अपने काम में जुट जाती. मुझे आज भी याद है माँ का वो मुँह अंधेरे जगना और घर के काम में जुट जाना. मेरी नींद ही खुलती उस संगीत से जो खन-खन बजती माँ की चूड़ियों और झाड़ू की खर-खर से मिलकर बनता था. और रात को सबके सो जाने के बाद भी न जाने क्या धरती-ओसारती रहती. माँ कब सोती थी मैं नहीं जानता.
    उन दिनों माँ की तबियत खराब थी. तब भी उसने काम करना नहीं छोड़ा था. उसके घरेलू नुस्खे काम नहीं आये और एक दिन बुखार ने उसे इतना आसक्त कर दिया कि धूप मुंडेरों से होती हुई छ्प्पर पर पसर आई. दादी की नींद खुली. सामने बिना झाड़ू लगा आँगन, बिन माँजे रात के जूठे पड़े बर्तन दादी के क्रोध को भड़काने के लिए पर्याप्त थे. “आज महारानी, खटिया ना छोड़िहें का? ई चुल्हा-चौका अइसहीं पड़ल रही कि इनकर बाप आवत हउवन करे?” दादी ने जागते ही आसमान सर पर उठा लिया था. माँ जैसे-तैसे करके उठी थी. उसने झाड़ू लेकर आँगन बुहारना शुरू किया. दादी अभी भी भुनभुनाए जा रही थी. “हम ना जानत रहलीं कि जीउत हमरे कपारे अइसन जंगरचोट्टिन मढ़त हउवन. ना त ओही दिन मना कर देले होइतीं जवने दिन ऊ आपन लइकी देबे हमरा दुअरा आइल रहलन.” जीउत हमारे नाना का नाम था जो ऐसे मौकों पर दादी के लिए माँ को कोसने और गाली देने के लिए काम आता था. “माई! रोज त करबे ना करींला. आज तनी आँख लाग गइल रहल ह.”, धीरे से माँ बोली. इतना सुनना था कि दादी जैसे इसी बात का इंतजार कर रही हो, “जबान लड़इबिस तूँ हमसे, एगो त हे बेरा ले सुतत हइस बेहया, आ ऊपर से लाज शरम कुल्ही बाप के घरे छोड़ि अइलिस का रे? रहि जो अबहिंए बतावत बानी.” फिर तो माँ के ऊपर गालियों और थप्पड़ों की बौछार शुरू हो गई. माँ को पिटता देखकर हम भाई-बहन एक दुसरे से लिपट कर रोने लगे. आँगन में एक तरफ तराजू और बाट रखा था. दादी ने आव देखा ना ताव, बाट उठाया और दे मारा माँ को. बाट सीधा जा कर माँ के पेट में लगा. मुझे नहीं भूलती माँ की वो मर्मांतक चित्कार, आज भी. माँ दोनो हाथ से पेट पकड़ कर आँगन में छटपटाने लगी. अचानक हुई इस अप्रत्याशित घटना से दादी भी सन्न रह गई. हम भाई-बहन दौड़्कर माँ के पास गए. माँ दर्द से तड़प रही थी. चीख-पुकार सुनकर दुआर से बाबूजी और चाचा दौड़े आये. तब तक आस-पड़ोस के लोग भी आ गये थे. “माई! ई का कइलिस तूँ!”, कहते हुए बाबू जी सर पकड़ कर आँगन में बैठ गये.
    पड़ोस की औरतों ने जैसे-तैसे माँ को खाट पर लिटाया. सभी लोग दादी को बुरा-भला कह रहे थे. कोई वैद्य जी को बुला लाया. वैद्य जी ने दर्द रोकने की दवा दी. बड़ी देर के बाद माँ को दर्द से आराम मिला. वैद्य जी ने बाबू जी को सलाह दी, “चोट बहुत तेज लगी है और अंदरूनी है. बेहतर होगा तुम इन्हें शहर ले जा कर किसी अच्छे से डॉक्टर को दिखाओ....हालांकि मैं हर संभव प्रयास करुँगा लेकिन....” और वैद्य जी चले गये.
    सबके जाने के बाद बाबू जी ने दादी से माँ को शहर ले जाने के लिए कुछ पैसे माँगे. दादी साफ मुकर गईं. उन्होंने पैसे देने से इंकार कर दिया. बाबू जी ने बहुत चिरौरी बिनती की लेकिन सब बेकार. दो चार दिन तक वैद्य जी दवा देते रहे फिर जवाब दे दिया कि अब मेरे वश की बात बात नहीं, शहर ले जाओ. बाबू जी ने इधर-उधर से कर्ज लिया और माँ को शहर ले कर चल दिये. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. माँ ने शहर जाते वक्त रास्ते में ही दम तोड़ दिया और सात साल की उम्र में ही मेरे सर से माँ का साया उठ गया.
    माँ के मरने के बाद चाची मायके से आ गई. कहते हैं लोहा ही लोहे को काटता है सो चाची के गर्म मिजाज के आगे दादी की एक न चली. दिन गुजरने लगे. जब तक माँ जिंदा थी हमें पलकों पर बिठा कर रखती थी. दर्द क्या होता है ये हमने माँ के गुजर जाने के बाद जाना. हमें अब चाची की जली-कटी सुनने की आदत पड़ चुकी थी. घर का हर छोटा-बड़ा काम हमीं से लिया जाता जबकि हमारे चचेरे भाइयों से कभी कुछ नहीं कहा जाता. बात-बे-बात चाची या दादी की मार सहनी पड़ती सो अलग. हमें बचा-खुचा खाना मिलता और हम अक्सर भूखे ही रहते. ऐसे में हमें मुखिया जी के घर के कामों की फिक्र कुछ जादे ही हो जाती. खैर, जब हम अपने साथ होने वाले इस भेद-भाव को जब बाबू जी से कहते तो उल्टा वे हमीं को डाँटते और भगा देते. फिर खुद ही पास बुलाते, थोड़ी देर चुप चाप हमें देखते रहते और सीने से लगा लेते. कुछ देर यूँ ही गुजरता और उन्हे अपने गमछे की याद आती. भर्राये गले से पूछते, “अरे, हमार गमछ्वा देखला ह सन?” और गमछे से आँख पोंछते खेत की ओर निकल जाते. ऐसा तब होता जब हमारे आस-पास कोई नहीं होता.
    रघुनाथ ने गमछे से अपनी आँख साफ की. माहौल कुछ भारी हो चला था. नीचे रघुनाथ का बेटा बैठे-बैठे ही सो गया था. अचानक नींद से चौंक कर इधर-उधर देखने लगा. “का भइल बेटा, पानी पियब? पियास लागल बा?” रघुनाथ ने बेटे से पूछा. लड़्के ने हाँ में सिर हिलाया. बेटे को पानी पिला कर रघुनाथ, मोहन जी की ओर मुखातिब हुआ, “जानते हैं मोहन जी, हमारे साथ हुए किसी भी दुर्व्यवहार के लिए बाबू जी ने परिवार में किसी से कभी कुछ नहीं कहा होगा, सिवाय एक बार को छोड़ कर. मेरे स्कूल जाने का वक्त हो चला था और चाची मुझे काम में उलझाए हुए थीं. मैं बार-बार कह रहा था, “चाची, हम स्कूल से आ के गोइंठवा (उपला) भीतर रखवा देब.” लेकिन चाची थीं कि अपनी ही रट लगाए जा रही थीं, “पहिले गोइंठा रखवाव फिर होई पढ़ाई-लिखाई. एक दिन में कौनो बड़्का कलक्टर ना बन जइब!” बाबू जी दुआर पर बैठे सब सुन रहे थे. जब उनसे नहीं रहा गया तो वहीं से बोले, “ई का कनिया, लइका के स्कूल जाए के समय हो गइल बा, आ तूँ बाड़ू कि ओकरा के काम में अँझुरवले बाड़ू. ना, ई ना होई. सबकुछ ठीक बा लेकिन लइकन के पढ़ाई के संगे कवनो खेलवाड़ ना होखे के चाहीं.” बाबूजी की इस स्पष्ट चेतावनी के बाद कभी किसी ने मेरी पढ़ाई में बाधा नहीं डाली.
    स्कूल से घर आ कर मैं बस्ता रखता, हाँथ-पाँव धोता और कुछ खाने को मिला तो ठीक नहीं तो सीधे मुखिया जी के दुआर पर पहुँचता वहाँ सुजीत और लाली के साथ खेलता. थोड़ी देर बाद दिया-बत्ती का समय हो जाता और मैं लालटेन साफ कर उसमें मिट्टी तेल डाल कर बत्ती जला देता. लालटेन जलाने के बाद मैं घर भागता. बस्ता लेकर वापस आता. सुजीत, लाली और मैं, हम तीनो लालटेन की रौशनी में पढ़ने बैठते.
    रघुनाथ रुके और गहरी साँस लेकर कहना शुरू किया, “वो मेरे जीवन के सबसे अच्छे दिन थे. खूब पढ़ने का मन करता और पढ़्ता भी था. माधव माट्साब का स्नेह भी था मुझ पर. हम रात के ९-१० बजे तक पढ़्ते थे. खाना खा लेने के बाद जब माधो माट्साब सोने लगते तो मेरा काम था उनका पैर दबाना. अब मैं रात को मुखिया जी के दुआर पर ही सोने लगा था. माधो माट्साब हमें भोर में ही जगा देते थे. कहते, “ब्रह्म मुहुर्त में पढ़ाई करने से माता सरस्वती प्रसन्न होती हैं और पाठ जल्दी याद होता है.” रघुनाथ हँसे, “सरस्वती जी का तो पता नहीं लेकिन पाठ जरूर जल्दी याद हो जाता था.
    बड़े अछे दिन थे मोहन जी! उन दिनों हर बात से खुशी होती. हम हर काम खुश हो कर करते. खास कर शाम का इंतजार कुछ इस तरह होता कि कब दिन ढ्ले और कब शाम हो और कब हम भाग कर मुखिया जी के दुआर पर पहुँच जाएँ. हर चीज तेजी से गुजरे, हो जाय, सिवाय इस बात के कि शाम धीरे कुछ और धीरे आहिस्ता से गुजरे. शाम के हर लम्हे को जरा प्यार से खींच कर कुछ और लम्बा कर लेते.
    सब कुछ ठीक चल रहा था. हम लोगों ने कक्षा पाँच तक अपने ग़ाँव के ही स्कूल में पढ़ाई की. पाँचवीं तक तो सब ठीक था. फीस लगनी नहीं थी. मुखिया जी का स्कूल यानी घर का स्कूल. और वैसे भी सुजीत का बस्ता ले जाने और ले आने के लिए भी तो कोई चाहिए ही था. आगे की पढ़ाई के लिए सोहाँव के सेवा संघ इंटर कॉलेज में दाखिला लेना था. एक तो दूसरा गाँव और ऊपर से फीस. इसका भी हल निकल आया. सुजीत का बस्ता मेरी पीठ पर और मेरी फीस मुखिया जी की जेब से.
    गुरू सेवा में तो हम रमे ही थे. बाकी हमारी शाम की कक्षा अभी भी बदस्तूर मुखिया जी के दुआर पर चलती रही. और चलती भी रहती अगर उस दिन लाली मेरी कॉपी (नोटबुक) लौटा ना रही होती. जाड़ों के दिन थे. तब हम बारहवीं में थे. लाली की तबियत ठीक नहीं थी सो वह दो दिन से स्कूल नहीं गई थी. उसने मुझसे मेरी कॉपी (नोट्बुक) ली थी. मुखिया जी के दुआर पर हमारी शाम की कक्षा अभी शुरु ही होने वाली थी. दुआर पर हम और लाली थे. सुजीत अभी नहीं आया था. लाली ने मेरी कॉपी मुझे लौटाने के लिए मेरी तरफ बढ़ाया. कॉपी के इस लेन-देन में हमारी उंगलियाँ छू गईं. जाने क्या था उस छुअन में कि उस पल लगा जैसे इस पूरी सृष्टि में इस छुअन के अलावा कुछ हुआ ही न हो. मैंने उस छुअन को अपने शरीर के हर हिस्से तक महसूस किया, एक-एक रोम तक. शायद लाली ने भी क्योंकि उसी क्षण हम दोनो की आँखें एक दूसरे से मिल कर थम सी गईं. कहने को वह एक सेकेंड की बात हो सकती है लेकिन मैं आज भी वो पल याद करता हूँ तो लगता ही नहीं कि वह क्षण बीत गया है. ऐसा लगता है जैसे उन पलों में मैं आज भी जी रहा हूँ. हम शायद कुछ और देर ऐसे ही ठिठके रहते कि जैसे बिजली सी कड़्की थी, “सुजीत!”, मुखिया जी गर्जे थे जोर से, “बहुत दिमाग चढ़ गइल बा तोहार, दुनिया ऊपर.” मुखिया जी सुजीत को लक्षित कर गुस्सा हो रहे थे कि वह अभी तक घर से दुआर पर पढ़ने क्यों नहीं आया लेकिन उनकी लाल-लाल आँखें खा जाने वाली दृष्टि से मुझे और लाली को देख रही थीं. फिर, जाने कब सुजीत आया, कब माधो माट्साब आये और हमने उस दिन क्या पढ़ा, कुछ याद नहीं. मैं उस दिन सोने के लिए घर चला आया.
    अगली सुबह जब नींद खुली तो बाबू मुझे झंझोड़ कर जगा रहे थे. मैं बदहवास सा जगकर बैठा तो मैंने देखा बाबू जी गुस्से से मुझे घूरे जा रहे हैं और मुझसे भी जादे बदहवास नजर आ रहे हैं. “काल्ह से तूँ मुखिया जी के दुआर पर ना जइब.”, उन्होंने फर्मान सुनाया. “लेकिन काहें बाबू?” मैंने पूछा. “लेकिन-वेकिन कुछ ना. पढ़ाई-लिखाई त दूर, तोरा कवनो काम से भी ओने का ओर नइखे जाए के. बस जेतना कहलीं ओतना कान खोल के सुन ले.” बाबू जी गुस्से में तमतमाए बाहर चले गये.
    शायद उस दिन मैं पहली बार सुबह-सबेरे मुखिया जी के दुआर पर नहीं गया. स्कूल गया तो लाली नहीं दिखी. सुजीत से स्कूल में बात करने की कोशिश की तो उसने भवें चढ़ा कर गुस्से में कहा, “औकात में रहू!” मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है? मेरी समझ से पिछली शाम को कुछ ऐसा भी नहीं हुआ जिसकी प्रतिक्रिया इस तरह से सामने आए. उस एक छोटी सी बात के अलावा हमारे और लाली के बीच ऐसा कुछ था भी नहीं जिसे ले कर इतनी हाय-तौबा मचाई जाय. सब कुछ जानते हुए भी मैं अपने प्रति हो रहे इस व्यवहार को समझ नहीं पा रहा था. खैर, उस दिन के बाद लाली बोर्ड की परीक्षा में ही दिखी. बस दिखी. बात करना तो दूर उसने आँख उठा कर भी मेरी तरफ नहीं देखा.
    परीक्षाएँ समाप्त हुईं और समाप्त हुआ मेरे जीवन का शैक्षणिक अध्याय. जिस दिन मैं अंतिम पर्चा देकर घर आया, उस रात बाबू जी ने अत्यंत ही गम्भीर मुद्रा में जीवन सार समझाते हुए एक उपदेशात्मक आख्यान दे डाला. जिसका सारांश ये था कि हमें कभी भी अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को भूलना नहीं चाहिए. कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे बड़कवा कही जाने वाली प्रजातियों की आँख की किर्किरी बनें, वगैरा-वगैरा. और अंत में मेरी पढ़ाई-लिखाई को अपने खान्दान ही नहीं बल्कि अपनी बिरादरी में एक बड़ी उपलब्धि घोषित करते हुए उस पर पूर्णविराम की घोषणा कर दी गई.
    अब मेरे सामने दो विकल्प रखे गये, या तो मैं अपने दूर के रिस्तेदार जो मेरे मामा लगते थे, उनके साथ बम्बई कमाने चला जाऊँ या बाबू के साथ मिलकर खेती-बाड़ी में लग जाऊँ. मैंने पहला विकल्प चुना और एक हफ्ते बाद मैं बम्बई जाने के लिए मामा के साथ बक्सर स्टेशन पर खड़ा था. तब तक इंटरमीडिएट की परीक्षा का परिणाम नहीं आया था.
    मन में मायानगरी को ले कर काफी उथल-पुथल मची हुई थी. अब तक देखी हर फिल्म के हीरो-हिरोइन कल्पनालोक में वहाँ गर्मजोशी से मेरे स्वागत में तत्पर नजर आते. आखिरकार मैं मामा के साथ बम्बई पहुँच गया. पहली बार इतने बड़े शहर में गया था. एक छोटे से गाँव से सीधे महानगर. आँखें हर नई चीज़ को देख कर चौंधियातीं और दिल उतनी ही तेजी से धड़कता. एक भय मिश्रित खुशी का माहौल था. लगा जैसे ये कोई और ही दुनिया है और मैं हवाओं में उड़ा जा रहा हूँ.
    ये सच नहीं था. जब सच सामने आया, मैं वास्तविकता के धरातल पर धड़ाम से जा गिरा. बम्बई स्टेशन से मीलों दूर के सफर के बाद जब मामा ने मुर्गी के दड़बे जैसे उस कमरे का दरवाजा खोला तो मुझे उस अघोशित कैद का आभास हुआ जो मुझे मुखिया जी ने उस रात मुकर्रर कर दिया था. सिनेमा के पर्दे पर दिखे बम्बई से, इस बम्बई का चित्र बड़ा ही अलग और विचित्र था. मैं देखकर दंग था कि एक ही छत के नीचे दो मंजिला रिहाइस कैसे हो सकती है? कमरे में रखे तख्ते के चारों पायों के नीचे दो-दो ईंटें लगा कर उसे ऊँचा कर दिया गया था और बाकायदे उस तख्ते को निचली मंजिल और तख्ते के उपर पहली मंजिल बना ली गई थी. निचली मंजिल में एक तरफ रसोई का सामान था जो खाना बनाते समय तख्ते के नीचे यानी निचली मंजिल से बाहर निकाल लिया जाता था. ये सब देखकर मुझे हंसी आई लेकिन यहाँ तक तो बात मेरे और मामा के बीच की थी. बम्बई के साथ मेरा पहला परिचय पानी के सार्वजनिक नल पर हुआ. मामा ने एक बाल्टी दे कर मुझसे नुक्कड़ के नल से पानी ले आने को कहा. नुक्कड़ पर नल से शुरू हो कर प्लास्टिक की बाल्टियों, मटकों और कनस्तरों की एक लम्बी लाइन लगी हुई थी और लाइन में लगे लोग तू-तू मैं-मैं कर रहे थे. लाइन को ले कर छीना-झपटी और धक्का-मुक्की हो रही थी. पानी के लिए भी मारा-मारी हो सकती है, ये मैं गाँव पर रहते हुए कभी सोच भी नहीं सकता था. मुझे अब आने वाले दिनों में उसी व्यवस्था में रहना था.
    दूसरा झटका लगा हाजत के लिए लोगों को कतार में खड़े हो कर पेट दबाये अपनी बारी का इंतजार करते देख कर. ताज्जुब तो तब हुआ जब इस बात के पैसे देने पड़े. बहरहाल, एक हफ्ते तक मैं सद्मे में रहा. फिर बड़ी मुस्किल से मुझे एक फैक्ट्री में काम मिला. काम क्या था? मजदूरी थी. काम मिला तो दूसरी चीजों से ध्यान हटा. लेकिन ये तो बस अभी सुरुआत थी. आगे की घटनाओं ने तो मुझमें हीनता का भाव भर दिया. चाहे वह बनिये की दुकान हो या घर से फैक्ट्री जाते हुए रास्ते में, बस या ट्रेन में स्थानिय लोगों द्वारा, “, हट बिहारी!” कहते हुए धकिया दिया जाना, आत्मा तक को दुत्कार जाता. ऐसा लगा जैसे अपना कोई वजूद ही ना हो. हमने गाँव पर कुत्ते-बिल्ली, माल-मवेसी को दुत्कारते भगाते हुए देखा था. यहाँ तो हम खुद अपने आप को ही उन से गए बीते की तरह बरते जाते हुए देख रहे थे. बिना बात कोई भी मुझे, “ऐ बिहारी!” मेरी पहचान को गाली की तरह उछाल कर एक हिकारत भरी नजर से देखता हुआ चला जाता है? अकेले में मैं फूट-फ़ूट कर रोता. आज भी मेरे लिए वे दिन दुःस्वप्न हैं.
    एक ही महीना बीता होगा कि एक दिन मामा बदहवास से आए और बोले, “जल्दी-जल्दी सामान-वामान बैग में भरो गाँव चलना है.” मैं कुछ समझ पाता कि फिर बोले, “जल्दी करो. मेरा मुँह मत ताको.” मामा ने डाँटते हुए कहा. हम लोग जैसे-तैसे जो भी सामान ले सके, लिया और स्टेशन आए. स्टेशन पर और भी अफरा-तफरी मची हुई थी. लोग बेतहासा भागे जा रहे थे. टिकट काउंटर पर टिकट के लिए मारा-मारी मची हुई थी. कई घंटे की मसक्कत के बाद
टिकट लेकर हम प्लेटफॉर्म पर पहुँचे तो देखते क्या हैं कि प्लेटफॉर्म पर कहीं भी तिल रखने की जगह नहीं. यू.पी. बिहार जाने वाली सारी ट्रेनें ठस्सम-ठस्स. लोग गेट के बाहर लटके हुए हैं और अंदर जाने के लिए गिड़्गिड़ा रहे हैं लेकिन अंदर जगह हो तो कोई आगे बढ़े. लोग भेंड़ बकरियों की तरह एक दुसरे से गुत्थम-गुत्था हो चीख-पुकार मचा रहे हैं. किसी का पैर कहीं, तो हाँथ कहीं दबा है. किसी का सर पीछे की ओर दो लोगों के बीच दबा है और वह सीधा होने के लिए पूरा जोर लगाते हुए चित्कार कर रहा है. किसी का दम घुट रहा है, कोई गाली दे रहा है, कोई मार-पीट पर आमादा है, तो किसी ने लात-घूसे से अपने से किसी कमजोर पर अपनी भड़ास निकाली है. कई ट्रेनों के निकल जाने के बाद हम भी जैसे-तैसे एक ट्रेन में ठुंसा गए. पूरे रास्ते हम दहसत में रहे. लोगों की बात-चीत से मैंने जाना कि वहाँ के स्थानीय लोगों को लगता है कि उनकी सारी समस्याओं के जड़ यू.पी.-बिहार के लोग हैं जो वहाँ पर जा कर छोटा-मोटा काम करके अपना पेट पाल रहे हैं. गाड़ी जब मैहर पहुँची तो किसी ने आवाज लगाई, “बोल-बोल मैहर वाली मइया की!” पब्लिक ने अब बेधड़्क पीछे से जैकारा लगाया, “जै!” लगा जैसे गले की घुटी हुई साँस अब जा कर निकली हो. लोगों के चेहरे पर अब राहत नजर आ रही थी. हम मामा-भान्जे बिना एक दूसरे की ओर देखे, मुँह लटकाए फर्श पर बैठे थे. मैंने सोचा, इन लोगों ने जितना साहस और उत्साह अभी माता के जैकारे में दिखाया, उसका दसवाँ हिस्सा भी बम्बई में दिखाते तो इस तरह लात मार कर भगाने का साहास किसी में न होता. इन सब बातों से परे मुझे ये बात समझ में नहीं आ रही थी कि हमें अपने ही देश में कुछ मुठ्ठी भर लोग जब चाहें मार-पीट कर भगा सकते हैं और उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता. अब ट्रेन में लोग खुल कर बात करने लगे थे. धीरे-धीरे शोर बढ़ने लगा. रघुनाथ को लगा उसका सर फट जाएगा. उसने अपना सर दोनो हाथों से पकड़ लिया. उसे मालुम हुआ जैसे उसके अंदर के शोर के साथ-साथ बाहर भी एक शोर सुनाई दे रहा है. “चल हाथ लगा..........छू कर तो दिखा.” “ट्रेन क्या तेरे बाप की है जो तू सो कर जाएगा और हम क्या तुझे बेवकूफ नजर आ रहे हैं जो टिकट लेकर खड़े-खड़े जायें और तुझे सोता हुआ देखते रहें. उतर स्साले नीचे नहीं तो अभी लगाता हूँ दो झापड़ दिमाग होश में आ जाएगा.” रघुनाथ ने देखा, कोई बगल के केबिन में जोर से चिल्ला रहा था. उत्सुकता का भाव लिए कई चेहरे उधर मुड़े. कुछ लोग ऊपर वाली सीट से भी उकड़ू बैठ कर बगल के केबिन में झांकने लगे. मोहन जी ने देखा, ऊपर की सीट पर एक आदमी कुहनी के बल अधलेटा सा कुछ बोलना चाहकर भी न बोल पानेकी स्थिति में अपने सर पर चढ़े एक सख्स से अपने बाँये हाँथ से अपना गिरेबान छुड़ाने की कोशिश कर रहा था.
    मोहन जी और रघुनाथ ने बीच-बचाव किया और ऊपर की सीट पर लेटे आदमी का कॉलर छुड़्वाया. कुछ देर बाद वहाँ चार लोग बैठे नजर आ रहे थे. वापस आ कर मोहन जी और रघुनाथ भी अपनी सीट पर बैठ गये. “हद है साहब! इहाँ खड़े होने की जगह नहीं है और ऊ महाशय लम्बी तान कर सो रहे थे. कोई बैठने की गुजारिश करता तो फुंफकार कर भगा देते थे. हम पटना से देखते आ रहे हैं इनको. अब टक्कर का आदमी मिला इनको. औकात बता गया इनकी. देखिए, कैसे भीगी बिल्ली बने बैठे हैं, बुड़बक जइसन.” पास बैठा एक सहयात्री बोला. “चुप रहिए‍‍! अइसहीं आपस में लड़ते रहिए. इससे ऊपर उठ कर नहीं सोच सकते आप लोग. जहाँ बोलना चाहिए वहाँ नहीं बोलेंगे. वहाँ चुप लगा जाएंगे कि बरियार आदमी है सामने. जिस दिन सही जगह पर बोलना आ गया न आप लोगों को तो उसी दिन सारी समस्याएँ जड़ से समाप्त हो जाएंगी.”, रघुनाथ ने खिन्न मन से कहा. फिर एक लम्बी साँस लेकर आँख बंद कर लिया. मोहन जी बोले, “छोड़िए महाराज, ई लोग तो अइसहीं लड़ता रहेगा. आप अपनी सुनाइए.”  
    रघुनाथ ने कहना शुरु किया, “मैं लुटा-पिटा सा गाँव आ गया था. सारी चीजें मकान, दुआर खेत-खलिहान, बाग-बगीचे सब अपनी ही जगह थे. सारे लोग वही थे. सब कुछ वही था लेकिन कुछ तो बदला था जिसे मैं ढूँढ़ रहा था. पहचानने की कोशिश कर रहा था. उन दिनों किसी के भी साथ रहने की इच्छा न होती. एक उलझन जैसी होती किसी के साथ बैठ कर बात करते हुए. मैं अकेला ही निकल जाता था सिवान की तरफ. किसी खेत की मेंड़ पर घंटों बैठा रहता. दूर-दूर तक खेतों में कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती. सन्नाटे के साथ झिंगुरों का शोर होता और मन में अथाह दुख भरे मैं बैठा रहता जाने कितनी देर तक यूँ ही बिना मतलब. जीवन जैसे निरुद्देश्य हो गया हो. जैसे ठहरे हुए पानी में बीच मझधार कोई निश्चल डेंगी पड़ी हो, जिसमें न कोई माझी न कोई पतवार और ना ही कोई हलचल जो उसे किसी किनारे लगा सके.
    जब दिन ढल जाता, अंधेरा घिरने को आता मैं घर की तरफ लौटता. मन कड़ा करके दुआर पर चढ़्ता. मुझे पता होता कि अब नजर पड़ेगी चाचा की और अब गरियाना शुरू करेंगे, दाँत पीस कर. होता भी वही. इन सब की परवाह किये बिना मैं कढ़ुआ उठाता और गोबर किनारे करने लगता. हालांकि गोबर कहाँ रहता उस समय तक. बाबूजी गोबर हटा कर दूध-वूध दूह चुके होते मेरे आने से पहले ही और मुखिया जी के यहाँ दूध दूहने गये होते. चाचा का गरियाना एक तरह से सब के लिए मेरे घर आने की सूचना होती. इतना सुनने के बाद जब मैं घर के अंदर जाता तो आँगन में घुसते ही चाची, दादी से मेहना मारते हुए कहतीं, “आ गइलन तोहार कमासुत, कमाई कइ के. बम्बई गईल रहल हन ना! अब राज ढाहत बाड़न. एगो खरिका जो खरका दिहन त छोट न हो जइहें! भर ढींढ़ खाए के मिलिए जाए के बा, हई लउंड़ी बड़ले बिया जांगर ठेठावे खातिर.” इतना सब कुछ सुनने के बाद जैसे-तैसे आधे पेट खाना खाता और दुआर पर कोई खाट पकड़ कर लेट जाता. एक दिन लेटे-लेटे मैंने चाचा को बाबू जी से कहते हुए सुना, “भइया, सोचला हा, ई रघुनथवा का करी? ई जहिया से बम्बई से आइल बा, दिन भर लुहेंड़ा अइसन एने से ओने मटरगस्ती करता. कवनो काम-धंधा में लागो, ना ता अइसहीं सुखले जौ तूरत रही.” बाबूजी बिना कुछ बोले चुपचाप चारपाई पर लेटे हुए चाचा की बात सुनते रहे. चाचा के कह लेने के बाद गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, “हूँ!”
    दो चार रोज बाद बाबू जी मुखिया जी के यहाँ से गरुवारी करके आये और मुझ से बोले, “रघुनाथ! आव एक जगह चले के बा.” मैं और बाबू जी एक साथ चल पड़े. आगे-आगे बाबू जी और पीछे-पीछे मैं, दोनो चुप-चाप. जब हमने गाँव का सिवान पार कर लिया तो बाबूजी रुके. उनका चिंता लिए चेहरा मुझे आज भी याद है. उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और बोले, “रघुनाथ तोहार माई मर गइल, हम कुछ ना कइ पवलीं. एकर मलाल हमके जीवन भर रही. ऊ जीवन भर दुःख उठवलस आ हम लेहाजे करत रहि गइलीं. खैर, जवन बिधाता चहलन तवन भइल. अब हम तोहार जिनगी खराब होखत नइखीं देखल चाहत. तूं अब तक जेतना पढ़्ल लिखला ओकरा में मुखिया जी आ माधो माट्साबके सहयोग रहे, खास क के माधो माट्साब के. बाकिर आज हमनी के हैसियत अइसन नइखे कि मुखियाजी से बिगार क के एह गाँव में रहि पांई जा. ऊ नइखन चाहत कि तूँ गाँवे रह. वजह तूँ जानत बाड़ आ हम ओकरा पर सवाल जवाब नइखीं कइल चाहत. काहें से कि हमरा तोहरा पर भरोसा बा कि तूँ कुछ अइसन जान बूझके नइख कर सकत जवना से हमार माथा नवे.” बाबू जी ने अपनी जेब से निकाल कर कुछ पैसे मेरे हाथ पर रखे और कहा, “ई कुछ पइसा रखा, तोहरा कामे आई. नारायन पुर के बिसेसर जी के इहाँ हमनी के रिश्तेदारी ह. ऊ तोहार फूफा लगिहें. उनहीं केहें तोहराके ले चलत बानी. ऊ सूरत कवनो फैक्टरी में ठेकेदारी करेलन. उनहीं संगे तोहके लगा देत बानी.”
    एक हफ्ते बाद मैं अपने दूर के रिस्तेदार जो कि मेरे फूफा लगते थे, उनके साथ फिर से बक्सर स्टेशन पर खड़ा था. फूफा ने मुझे एक फैक्ट्री में रखवा दिया. दिन गुजरने लगे और देखते-देखते सात-आठ महीने गुजर गए. मुझे रह रह कर गाँव-घर की याद आती. वहाँ कोई अपना भी तो नहीं था. ले-दे कर एक फूफा थे और वो भी हमेशा चुप-चाप ही रहते थे. बस कोई काम होता तभी बात करते जैसे; बाजार से कोई सामान लाना हो या खाना बनाने में कोई मदद करनी हो. इसी सब से जुड़ी बातें होती हमारे बीच. महीने के आखिर में जो पगार मिलती मैं फूफा के हाथ में रख देता. दिन गुजरने लगे. गाँव की बहुत याद आती. गर्मियाँ बीतीं और देखते-देखते जाने कहाँ से आ कर रूई के फाहों से बादल आसमान में तैरने लगे. जब बारिश की रिमझिम फुहार पड़ती, मुझे मेरा गाँव याद आ जाता. कैसे बारिश शुरू होते ही मैं लड़्कों के साथ घर के बाहर निकल जाता फिर मोजे और कपड़े से बनी गेंद से फुटबाल खेला करता.बारिश के पानी में छप-छप करते, गिरते-पड़ते, हँसते, शोर मचाते, खूब धमाचौकड़ी करते. कैसे बारिश की तेज हवा में धान की फसलें झूम-झूम जातीं. पेड़ों के पत्तों से टपकती बूँदें मोतियों सी लगतीं. मैं सोचता, क्या ये सब आज भी होता होगा वहाँ? मेरे बिना? मेरे गाँव में? होता तो होगा ही. किसी के बिना कुदरत का कारोबार थोड़े ना रुकता है? ये सब सोच कर मन उदास हो जाता. कभी-कभार गाँव से बाबू जी की चिट्ठी आ जाती जो वो किसी न किसी से चिरौरी बिनती करके लिखवाते रहे होंगे. एक दिन बाबू जी की चिट्ठी आई कि तुमें बहुत दिन हुए गये हुए. कुछ दिन की छुट्टी ले कर गाँव घूम जाओ. मुझे भी गाँव जाने का बहुत मन कर रहा था. शाम का वक्त हो रहा होगा, मैं और फूफा खाना बना रहे थे. मैंने कहा, “फूफा, गाँव से बाबू जी की चिट्ठी आई है, मुझे बुलाया है.”
हूँ!”
जाना चाहता हूँ.”
तो जाओ किसने रोका है.”
कल मैं फैक्ट्री जा कर दस दिन की छुट्टी ले लुँगा और परसों गाँव के लिए ट्रेन पकड़ा दीजिएगा.”
फूफा चुप्प. कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा, “फूफा, कुछ पैसे दे देते तो......” मेरा इतना कहना था कि जैसे फूफा को बिजली का नंगा तार छू गया हो और हाथ में पकड़ा बैंगन और चाकू झटके से छोड़ कर बोले, “क्या?....पैसे? कैसे पैसे?” मैंने डरते हुए कहा, “ वही जो हर महीने मैं अपनी तनख्वाह के पैसे आप को देता आया हूँ. घर जाना...........” फूफा गुस्से में तमतमाए हुए मुझ पर फट पड़े, “तो अब तुम मुझसे हिसाब लोगे? कल के लौंडे, जिसको गाँड़ धोने का सऊर नहीं, आज हमसे जबान लड़ाता है कि तनख्वाह का पैसा दिये हैं, कहाँ खर्चा किये? कहाँ गुलछर्रा उड़ाए? लाओ हिसाब दो. तो कान खोल कर सुन लो बबुआ ई जो तुम्हारा खाना-खोराकी है न, कवनो धर्मखाता नहीं चलता है इहाँ. भर ढिंढ़ खाते हो अउर तान कर सोते हो इस कोठरिया में, उसका किराया लगता है. कवनो फोकट में रहने का जगह नहीं मिला है हमको भी. जवन छाती पर चढ़ कर पइसा माँग रहे हो जो तनख्वाह का, ऊ भी नोकरी हमरे दिलवाया हुआ है. नहीं तो गाँड़ घिसते रह जाते कवनो खड़ा नहीं होने देता तुमको अपने इहाँ. आज पाँख जाम गया है तुमको. उड़्ना चाहते हो? तो जाओ उड़ो.” मुझे धक्का देते हुए कहा, “चलो निकलो इहाँ से. अब बहुत हुआ तुम्हरा नौटंकी. फिर झांक कर देखना भी मत इधर. चल निकल.” और सच में उसने मेरा पखुरा पकड़ कर घर से बाहर कर दिया और धड़ाक से कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. मुझे समझ में ही नहीं आया कि ये हुआ क्या मेरे साथ.
    रात के नौ बज रहे थे. मैं लुंगी और बनियान पहने नंगे पाँव घर के बाहर खड़ा था. अभी थोड़ी देर पहले मैं आँटा गूँथ रहा था और आटा अभी भी मेरे हाथ में लगा था. कुछ देर जड़्वत मैं उसी तरह खड़ा रहा फिर हिम्मत जुटा कर मैंने दरवाजा थपथपाया, “फूफा, हमारि बात तो सुनो! ऐसे हम कहाँ जाएंगे? दर्वाजा खोलो. हमारी बात.........” धड़ाक से दरवाजा खुला और दाँत पीसते हुए फूफा बोले,  “भाग साले अभी यहीं खड़ा है. भाग नहीं तो जूता-जूता मारेंगे.” सच में उनके हाथ में जूता था. ये सब मेरे लिए अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि घर से इतनी दूर अनजान देश में हमारे पिताजी ने जिसके साथ मुझे इतने विस्वास के साथ भेंजा है वह मेरे साथ इस तरह से विस्वासघात करेगा और मुझे धक्के मार कर इस हलत मे अपने घर से निकाल देगा.
    फूफा का ये रूप देख कर मैं काफी डर गया था. गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन हट्ठे-कट्ठे फुफा के सामने मैं सोलह-सतरह साल का लड़का क्या कर लेता. मैं ठगा सा आहत मन लिए खड़ा था. जैसे किसी ने मेरे बेजान पैरों के नीचे से जमीन ही खींच ली हो. सारा शरीर बेजान सा लग रहा था. एक ही सवाल मन में आ रहा था, “अब?” मेरी हालत समंदर में उस तिनके के समान थी जिसके आस-पास दूर-दूर तक कुछ भी ना हो और ये भी ना मालुम हो कि जाना किधर है? मैं देर तक नंगे पाँव चलता रहा. कंकड़ भरे रास्तों पर चलते हुए पैर घाव जैसा दर्द करता. मन की पीड़ा आँखों से बह निकलना चाहती थी. जाने कब तक मैंने अपनी रुलाई गले में रोके रखी. गले की नशें फट पड़ने की सीमा तक तनी रहीं. आखिरकार सब्र का बाँध कब तक अक्षुण रहता. मैं रो पड़ा. शायद मैंने इतनी जोर से बचपन में ही रोया हो. आस-पास के आते-जाते लोगों ने मुझे रोते हुए देखा तो ठिठक कर चौंके. लेकिन किसी ने भी मेरे कंधे पर हाथ रख कर ये नहीं पूछा कि आखिर हुआ क्या? क्यों तुम ऐसे सरेराह रो पड़े? तुम्हें क्या दुःख है, तुम्हें क्या तकलीफ है? थोड़ी देर बाद मैं खुद ही चुप हो गया. और चल पड़ा. लोगों ने अपने कंधे उचकाये और मुँह बिचकाया फिर अपने-अपने रास्ते हो लिए. तभी आसमान से बूँदाबादी होने लगी और देखते ही देखते तेज बारिश होने लगी. शायद कुदरत से भी मेरा दुःख देखा ना गया हो. इस बारिश ने मेरे आँशू पोंछ दिये. अब चेहरा ही नहीं मेरा पूरा शरीर धुल गया था. चेहरे से आँशू या बारिश की बूँद अलग नहीं की जा सकती थी. कुछ ही देर बाद मैं बारिश में पूरा भींग चुका था और कांप रहा था. इस नई समस्या ने मुझे अपना दुःख भूलने में मेरी मदद की. बारिश से बचने के लिए जिस टिन शेड के नीचे आ कर मैं खड़ा हुआ था वहाँ कुछ लोग पहले से खड़े थे. कि तभी किसी ने पीछे से मुझे आवाज दी, “रघुनाथ!” मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो मेरे साथ फैक्ट्री में काम करने वाला हाफिज खड़ा था. अपनी ही तरफ का था, आरा का. साथ में काम करते हुए थोड़ी बहुत जान पहचान हो गई थी, “तुम तो पूरा भींग गये हो. इधर कहाँ?” उसने गमछा दिया मुझे सर पोंछने को. बारिश रुकी तो बोला, “मैं यहीं पास में ही रहता हूँ आओ कुछ देर बैठते हैं, फिर जाना.”
    घर पहुँच कर उसने धोती दी लपेटने को और मैंने अपने कपड़े बारामदे में बंधे तार पर डाल दिये. हाफिज बोला, “तुम तो लक्षमी नगर में रहते थे न? आज कल इधर ही आ गये हो क्या?” जब मैंने उसे सारी बात बताई तो हाफिज बोला, “देखो रघुनाथ, हम तुम्हारे फूफा से लड़-झग़ड़ कर पैसे नहीं ले सकते. मेठ है वो फैक्ट्री लेबरों का. उसके लगाए हुए बीस-पचीस लेबर हमेशा फैक्ट्री में काम करते हैं. वो जब चाहे फैक्ट्री में किसी को रखवा सकता है और जब चाहे निकलवा भी सकता है. उसने तुमको भी यही सोच कर घर से निकाला है कि भाग कर जाएगा कहाँ? थक हार कर हमारे ही पास वापस लौट कर आना है. मैं तो कहुँगा तुम वापस गाँव चले जाओ नहीं तो यह बस तुम्हें खाना-खोराकी पर खटवाता रहेगा और तुम्हारी सारी कमाई ऐंठता रहेगा. मेरे पास भी जो पैसे थे, परसों ही घर भिजवा दिया. हाँ तुम्हारे घर जाने भर के किराये के पैसे मैं तुम्हें दे सकता हूँ.” मैं भी किसी तरह घर पहुँच जाना चाहता था. कुछ देर तक मैं बैठा सोचता रहा. जाने किस प्रेरणा से मैं उठा और हाफिज से बोला, “हाफिज भाई, साइकिल है आप के पास?” हाफिज ने हाँ में सर हिलाया. “आओ मेरे साथ.”, मैंने कहा और हम दोनो साइकिल से चल पड़े. हाफिज पूरे रास्ते पूछता रहा हम कहाँ जा रहे हैं. मोड़ पर साइकिल रोक कर मैंने हाफिज से कहा तुम कुछ देर यहीं रुको मैं अभी आया. मैं वापस वहीं खड़ा था जहाँ फूफा ने मुझे धक्के मार कर घर के बाहर किया था. मैंने सांकल बजाई. फूफा ने दरवाजा खोला. मुझे दरवाजे पर खड़ा देख कर उनके चेहरे पर एक अहंकार और हिकारत भरी मुस्कराहट तैर गई. बिना कुछ कहे सुने मैंने एक झन्नाटेदार तमाचा फूफा के गाल पर मारा. फूफा को समझ में ही नहीं आया, ये हुआ क्या? गाल पर हाथ रखे, आँखे फाड़े फूफा मुझे देखते रह गए. फिर उसी तेजी से मैं वापस उसी मोड़ पर आया. मैंने हाफिज से कहा, चलो काम हो गया. हाफिज मुँह बाये खड़ा था जैसे पूछ रहा हो कैसा काम? मैं हँसा चलो हाफिज भाई अब मुझे कोई मलाल नहीं. तुम मुझे स्टेशन छोड़ दो.
उसने मुझे स्टेशन पहुँचा दिया. उस समय रात के १० बज रहे थे. ट्रेन ११ बजे थी और स्टेशन से उसके घर जाने वाली बस १०.३० पर खुलती थी. हाफिज ने टिकट कटा कर मुझे बता दिया था कि ट्रेन फलां प्लेटफॉर्म से खुलेगी और वो चला गया.
    उसके साथ रहने तक तो सब ठीक था लेकिन उसके जाने के बाद मुझे डर सा लगने लगा. इससे पहले मैं कभी अकेले कहीं आया-गया नहीं था. मैं जिधर भी देखता लोग भागे जा रहे थे. इस बीच मैं भूल गया कि हाफिज ने मुझे कौन सा प्लेटफॉर्म बताया था. अब मैं और भी डर गया. मैं बदहवास सा हर किसी से पूछने लगा, “भइया, बिहार जानेवाली ट्रेन किस प्लेटफॉर्म से जाएगी?” पहले तो सब हाथ झटक कर सर हिलाते हुए निकल जाते, जैसे इस बेकार से सवाल के लिए उनके पास जरा भी समय नहीं. कोई नाक-भौं सिकोड़ते हुए रुकता भी तो झट से बोलता, “मुझे नहीं मालुम!” और निकल जाता. कोई पूछता, “अरे भाई, बिहार में कहाँ?” जब तक मैं बक्सर का नाम लेता वो इंक्वायरी पर जाने की सलाह दे कर निकल जाता. इस तरह इधर-उधर भागते ११ बजने को हो आया. घड़ी में ११ बज रहे थे और सामने से एक ट्रेन खुल रही थी. मैं भाग कर गया और उसमें चढ़ गया. ट्रेन चल पड़ी. कुछ देर बाद खिड़की से बाहर रंग-बिरंगी रौशनी बिखेरता शहर पीछे छूटता दिखाई दे रहा था. ये शहर इतना भी खूबशूरत हो सकता है, मैंने कभी सोचा भी नहीं था. कि तभी मुझे सुनाई पड़ा, “टिकट!” मैंने अपना टिकट दिखाया. टिकट देखते ही उसने मुझे डाँटते हुए कहा, “जेनरल डिब्बे का टिकट लेकर स्लीपर में बैठे हो? और ये क्या तुम्हें बक्सर जाना है फिर इस ट्रेन में कैसे चढ़ गये? एक तो मैं जेनरल डिब्बे का टिकट लेकर स्लीपर में बैठा था. हालाँकि, मुझे उस समय नहीं मालुम था जेनरल और स्लीपर का अंतर. दूसरे, मैंने गलत रूट की ट्रेन पकड़ ली थी. इन सारी गलतियों का खामियाजा ये कि, टीटी ने मुझसे मेरे सारे पैसे ऐंठ लिए और अगले स्टेशन पर उतार दिया. तब रात के एक बज रहे थे. मैं चुपचाप जा कर एक बेंच पर बैठ गया. मैं घर से बिना खाना खाए ही चला था. मेरा भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था. पेट में एक अजीब सी ऐंठन हो रही थी और आँखें मिची जा रही थीं. सामने कुछ लोग ठेले से लेकर पूड़ी-शब्जी खा रहे थे. उन्हें खाते देख कर मेरी भूख और भी बढ़ गई थी. लेकिन जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी कि मैं कुछ खरीद कर खा सकूँ. यही सब सोच कर मुझे रोना आ गया. पास में बैठे एक फौजी ने पूछा, “क्या हुआ? क्यों रो रहे हो?” कुछ देर तक मैंने टाल-मटोल की फिर अपनी आप-बीती बताई तो वह बोला, “परेशान मत होओ. मुझे आरा जाना है. मैं तुम्हें साथ लेता चलुँगा बस मेरे पास सामान कुछ जादे है उसे चढ़ाने में मेरी मदद कर देना.” उसने मुझे पूड़ी-शब्जी खिलाई और जब ट्रेन आई तो हमने उसके सामान को फौजी डब्बे में रखवाने में मदद की. इस तरह मैं बक्सर पहुँच गया.
    जब मैं बक्सर स्टेशन पहुँचा, दोपहर के दो बज रहे थे. फौजी ने मुझे बस के किराये भर पैसे दे दिये थे. मैं गाँव से कुछ पहले ही बस से उतर गया. दरअसल उस समय मेरी दशा भिखारियों से कम नहीं लग रही थी. हाफिज ने जो पैंट मुझे दी थी वो मुझे एड़ियों से दो अंगुल ऊपर हो रही थी. शर्ट कंधे पर चढ़ी हुई. साफ लग रहा था कि मैंने मंगनी का कपड़ा पहना हुआ है. तिसपर वो दो दिन में गंदे हो कर मैले-कुचैले और चिक्कट हो गए थे. बाल उलझ कर चिड़ीया का घोंसला और देह पर मैल की एक परत जम गई थी. इस हालत में घर जाते हुए मुझे शर्म सी आ रही थी. गाँव का कोई आदमी मुझे इस हालत में देख ले तो क्या सोचेगा? गाँव का सिवान देख कर मुझे जितनी खुशी हो रही थी, अपनी दशा देख कर उतना ही मैं शर्म से गड़ा जा रहा था. मैं छुप कर खेतों में बैठ गया. शाम ढले जब धुँधलका होने लगा तो मैं धीरे-धीरे गाँव की ओर चल पड़ा. आते-जाते लोग परछाइयों से लग रहे थे. अंधेरा घिर आया था और दूर से चेहरे पहचान पाना मुस्किल था जब तक नजदीक न जाया जाय. घरों में ढिबरी-लालटेन जल चुके थे. चूल्हे का धुँआ अपनापन लिए गली-मुहल्ले में घूम रहा था. बच्चे अब खेतों-खलिहानों से आ कर अपने घर के दरवाजों और गलियों में खेलने लगे थे. मैं चोरों की तरह घर में घुसा. दादी, बारामदे में चारपाई पर लेटी थी. बोली, “के ह?” मैने जा कर पैर छुए. ढिबरी की रौशनी में देख कर मुझे पहचानने की कोशिश करते हुए दादी बोली, “के? रघुनाथ?” “हाँ दादी, रघुनाथ! घरे केहू बा नाहीं का? केहू दिखाई नइखे देत.” “अरे केशव पहलवान के इहाँ नेवता में गइल बा सब. आज उनका इहाँ तिलक आवत बा न.” मेरे लिए तो यह अच्छा ही था कि मुझे इस हालत में कोई ना देखे. मैंने जल्दी से नहा कर रसोई से दही-गुड़ और रोटी ले कर खा लिया और चारपाई पर लेट गया. लेटते ही मुझे नींद आ गई. दिन चढ़े तक मैं सोता रहा. जब नींद खुली तो मैंने देखा मेरा छोटा भाई मुझे जगा रहा है, “भइया चल बाबू जी बोलावत बाड़न.” हाँथ मुँह धोकर मैं दुआर पर गया तो देखा बाबू जी रस्सी बट रहे थे. मुझे देख कर उनके चेहरे पर एक चमक सी आई और चली गई. बाबू जी जल्दी अपनी खुशी हो या दुःख, जाहिर नहीं करते थे. रस्सी बटते हुए उन्होने पूछा, “कब अइल?”
कल शाम के.”
चिट्ठी मिलल रहे?”
हँ.”, मैंने नीचे देखते हुए कहा.
कुछ देर की चुप्पी रही हम दोनो के बीच. पिता जी रस्सी बटते रहे. कुछ देर बाद रस्सी बट गई तो उसे खूंटी पर टाँग कर मेरे पास आ कर बैठ गए. मुझे बड़ा अटपटा सा लगा. इससे पहले मैं और बाबूजी कभी एक साथ एक चारपाई पर अगल-बगल नहीं बैठे थे. मैं उठ कर खड़ा हो गया. बाबू जी ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बैठा लिया. “बैठ-बैठ! जब बाप के जूता बेटा के पैर में आवे लागे त लड़िका के अपना बराबर समझे के चाही. अब तूँ लड़िका नइख रहि गइल. अब सयान भइल. हमार बोझ हलुक भइल.”, बाबू जी देर तक खुल कर बोलते रहे. मैं सर झुकाए चुपचाप सुनता रहा. बहुत खुश थे बाबू जी. फिर बताने लगे, फलाने का इतना उधार है, ठिकाने का इतना और अंत में खुद को आश्वस्त करते जा रहे थे कि अब मेरे आ जाने से इन सबका पाई-पाई चुकता हो जाएगा. परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है, वगैरा-वगैरा. ये सब सुन कर जाने कब और कैसे मुझे रुलाई आ गई. मुझे सुबकता देख कर बाबूजी बोलते-बोलते रुके और चौंक कर मुझसे पूछा, “रघुनाथ? का भइल? काहें रोवत बाड़?” मैंने एक-एक बात बाबू जी को बतानी शुरू की. बाबू जी धैर्य से सब सुनते रहे सारी बात सुन लेने के बाद कुछ देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे फिर लम्बी साँस छोड़ते हुए उठ खड़े हुए. मेरे कंधे पर हाँथ रखा और बोले, “घबराए के ना! हम बानी न! जवन भइल तवन भइल. अब ओकरा बारे में मत सोच. हम ना सोचले रहलीं कि घर छोड़े के सजाइ तोहके हे तरे सहे के पड़ी. मान सम्मान से बढ़ि के कुछ ना होला. आ रहल बात मुखिया जी के, त छोड़्लीं हम आज से उनकर चरवाही. हमनी के बाप-बेटा मिल के जग जीत लेब जा. अब कहीं जाए के जरूरत नइखे तोहरा. गाय के सानी-पानी हो गईल बा, आव छ्पटी काटल जाव.” हम बाप-बेटा चारा मसीन में लेहना डालकर छपटी काटने लगे. उस दिन चारा मशीन में मैं अपने सारे दुःख कटते हुए देख रहा था. हम बाप-बेटे एक दूसरे को देखते हुए अंदर तक आह्लादित हो हँस रहे थे. चारा मशीन से एक मधुर संगीत सुनाई पड़ रहा था, छप-छप.....छप-छप........उससे अच्छा संगीत मैंने आज तक नहीं सुना.
    रघुनाथ के चेहरे पर एक दृढ़ता और स्वाभिमान का भाव लिए हुए मुस्कान तैर रही थी मानो आज भी वह उस छ्प-छ्प के संगीत को साफ-साफ सुन पा रहा हो. ट्रेन अब नैनी पुल पार कर रही थी, खट-खट...धड़-धड-........खट-खट.........धड़-धड़......एक लय था उस शोर में भी. “इलाहाबाद आ गया भइया जी. आप यहीं उतरेंगे न?” नीचे से किसी ने मोहन जी को आवाज दी. “हाँ भाई, इलाहाबाद ही उतरना है हमको.”, मोहनजी बोले और रघुनाथ का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “हमारा स्टेशन तो आ गया रघुनाथ भाई, अब चलना होगा.” फिर थोड़ी देर रुक कर बोले, “हम सब कहीं ना कहीं एक संघर्ष कर रहे हैं, चाहे वह रोजी‌-रोटी के लिए हो या आत्मसम्मान के लिए. भले ही हमारी परिस्थितियाँ अलग-अलग हों, हमारे तौर-तरीके अलग-अलग हों लेकिन हम सभी की कहानी एक ही है. खैर, ये लीजिए मेरा नं. और फोन पर बात होती रहेगी.” मोहन जी ने रघुनाथ को पर्ची पर लिख कर अपना नम्बर दिया. दोनो मित्रों ने एक दूसरे से बिदा ली. कुछ ही देर बाद ट्रेन इलाहाबाद जंक्सन के प्लेट्फॉर्म नं. १ पर रेंग रही थी और एक बार फिर से वही दृश्य उपस्थित था जो कुछ घंटे पहले बक्सर स्टेशन के प्लेट्फॉर्म नं २ पर था.     


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Shivanand Mishra



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